BA Semester-5 Paper-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - ५

ईशावास्योपनिषद्

प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्

उत्तर -

ईशावास्योपनिषद्

१.

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

सन्दर्भ - विवेच्य मंत्र वैदिक साहित्य के अन्तिम भाग स्वरूप 'उपनिषद साहित्य' में प्रथम ईशावस्योपनिषद् से उद्धृत है। यह ईशावास्योपदनिषद् शुक्ल यजुर्वेद संहिता का ४०वाँ अध्याय है।

प्रसंग - उक्त मंत्र में ईश्वर का सर्वव्यापक एवं पूर्ण बताया गया है जोकि पूर्ण को निकाल लेने पर भी पूर्ण शेष रहता है।

व्याख्या - वह परब्रह्म सभी प्रकार से परिपूर्ण है। संसार भी पूर्ण है। उस पूर्ण (परब्रह्म) से ही यह पूर्ण उत्पन्न हुआ है। 'यतो हि परब्रह्म' अतः उससे आविर्भूत यह संसार भी पूर्ण है। उस पूर्ण ब्रह्म में से पूर्ण को निकाल लेने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।

शब्दार्थ - ॐ परब्रह्म अदः - वह परब्रह्म इदं - यह (संसार भी) पूर्णम् - पूर्ण है पूर्णात् - उस (पूर्ण) परब्रह्म से पूर्णम् - यह पूर्ण उदच्यते उत्पन्न हुआ है। पूर्णस्य पूर्ण के पूर्णम - पूर्ण को आदाया निकाल लेने पर (भी) पूर्णम एवं पूर्ण ही अवशिष्यते शेष रहता है।

टिप्पणी - ॐ - ॐ शब्द परब्रह्म का वाचक है अतएव मांगलिक है। कहा भी गया है कि 'ओंकार' और 'अथ' शब्द ब्रह्मा के कण्ठ का भेदन करके निकले हैं जिससे दोनों ही शब्द माँगलिक हैं।

२.

ईशावास्यमिदं सर्व यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम ॥

 

सन्दर्भ - पूर्ववत्

 

प्रसंग - पूर्ण को आदाया ईश्वर की व्यापकता के सन्दर्भ में कहा गया है कि वह सर्व व्यापक है। ईश्वर के अधीन यह संसार है उसे साक्षी मानना एवं उसके साथ ही जगत् के तत्वों का भोग करना श्रेयस्कर है

व्याख्या- इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड़-चेतन रूप संसार परिलक्षित हो रहा है वह सब ईश्वर से व्याप्त है उस ईश्वर के साथ त्यागपूर्वक भोग करो आसक्त मत हो धन किसका है? अर्थात् किसी का नहीं।

तात्पर्य यह है कि वेद मनुष्य को अपनी प्रभुसम्मित शब्द प्रधान शैली में यह निर्देश देता है कि स्थावर अथवा जङ्गम जो कुछ भी जगत् में दिखाई पड़ रहा है वह सर्वनियन्ता सर्वेश्वर परमब्रह्म ईश्वर से व्याप्त है अतः सर्वत्र उसकी सत्ता है। संसार के समस्त शुभ-अशुभ कर्मों का वह दृष्टा है अतः उसे साक्षी माने तो हम अनैतिक कार्य नहीं करेंगे। यहीं ईश्वर के साथ किया गया भोग है। हमें धन की ओर आकर्षित नहीं होना चाहिए क्योंकि धन सहित समग्र ऐश्वर्य नाशवान है।

शब्दार्थ - जगत्यां - ब्रह्माण्ड में यत् - जो जगत् - संसार ईशा - ईश्वर से वास्य - व्याप्त है।

व्याकरणिक टिप्पणी - तेन - 'तद्' शब्द से तृतीया एक वचन का रूप।

त्यक्तेन - त्यक्त' शब्द से तृतीया एक वचन का रूप।

मा - नहीं

कस्य - 'किम्' शब्द से षष्ठी एकवचन।

धनम् + धन + सु----- अम्। प्रथमा एकवचन।

३.

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लित्यते नरे ॥

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - शास्त्रोक्त कर्मों की कर्मठता एवं इन कार्यों से होने वाले उत्कर्ष के सम्बन्ध में कहा गया है

व्याख्या - इस लोक में शास्त्रनियत कर्मों को करते हुए ही सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिए। इस प्रकार के कर्म तुच्छ मनुष्य में लिप्त नहीं होगें इससे भिन्न अन्य मार्ग नहीं है।

तात्पर्य यह है कि यदि मनुष्य शास्त्रोक्त कर्मों को शास्त्रोक्त विधि से ही करता है तो यह आदर्श प्रणाली है। शास्त्रों में काम्य एवं निषिद्ध कर्मों के फल के त्याग की बात कही गई है जबकि नित्य नैमित्तिक प्रायश्चित एवं उपासना कर्मों को करने का निर्देश प्राप्त होता है। यदि मानव इन कर्मों को भली-भाँति करता है तो उसे शास्त्रों का आश्रय लेना होगा। यही कारण है कि शास्त्रीय कर्मों को करते हुए ही सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने की बात कही गई है। शास्त्रीय विधियाँ मनुष्य को श्रेय मार्ग में ले जाती हैं जिससे ईश्वर की प्राप्ति होती और मनुष्य मुक्त हो जाता है। मुक्ति का इससे भिन्न अन्य उपाय नहीं है।

शब्दार्थ - इह - लोक में कर्माणि - कर्मों को, कुर्वन् - करते हुए, शतं - सौ, इतः - इससे।

व्याकरणिक टिप्पणी - कर्माणि '- कर्म' शब्द से द्वितीया बहुवचन।  कुर्वन् - कृ धातु से शतृ प्रत्यय। नरे - 'नर' शब्द से सप्तमी एकवचन।

४.

असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽवृत्ताः। तांस्तेप्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥

प्रसंग - असुरों अर्थात् हिंसक प्राणियों की मृत्यु के उपरान्त होने वाली दुर्दशा एवं उनके लोकों की भयंकरता के सम्बन्ध में कहा गया है कि -

व्याख्या - असुरों से सम्बन्धित लोक अज्ञानता रूपी अन्धकार से आच्छादित हैं। जो व्यक्ति आत्मा की हत्या करना चाहते हैं अथवा ऐसा प्रयत्न करते हैं वे मर कर उन्हीं लोकों को बारम्बार प्राप्त होते हैं।

आसुरी प्रवृत्ति अमानवीय है। मानव में अकारण हिंसा को स्थान प्राप्त नहीं है किन्तु यदि कोई व्यक्ति अनावश्यक अथवा असंस्कृत ढंग से किसी की हत्या करता है तो वह 'असुर' अथवा 'दैत्य' है वह अज्ञानी है और अज्ञान रूपी अन्धकार अत्यन्त भयंकर है नरक तुल्य है। जो व्यक्ति हिंसारत है वे अज्ञानी एवं अन्धकार युक्त हैं मृत्यु के उपरान्त वे बार-बार कष्टकारी और अनिष्टकारी नरकादि लोकों को प्राप्त होते हैं। नरक लोक भयंकर है अतः हिंसक व्यक्ति पुनः पुनः उसी नरक को प्राप्त करता है।

इस मन्त्र के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि हमें हिंसा का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए क्योंकि वह अमानवीय है।

शब्दार्थ असूर्यानाम् - असुरों के, आवृताः - आच्छादित है, लोकाः - लोक, ते - वे, प्रेत्य - मरकर।

व्याकरणिक टिप्पणी -
असूर्यानाम् - असुर शब्द से षष्ठी बहुवचन।  तें - तद् शब्द से प्रथमा बहुवचन ( पुर्लिङ्ग)। प्रेत्य - प्र + इण् + ल्यप्। जना: - 'जन' शब्द से प्रथमा बहुवचन।

५.

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति। सर्वेभूतेषु चात्मन ततो न विजुगुप्सते ॥

 

प्रसंग - विवेच्य मन्त्र में परमब्रह्म को जानने वाले व्यक्ति की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि -

व्याख्या - परन्तु जो व्यक्ति समस्त प्राणियों को परमात्मा में देखता है और समस्त प्राणियों में परमात्मा के दर्शन करता है उसके पश्चात् वह किसी से घृणा नहीं करता।

जीव वस्तुतः ईश्वर का अंश ही है। सांसारिक मोह माया से पृथक जो व्यक्ति गुरु की शरण में जाकर ज्ञान प्राप्त करता है उसे परमात्मा का ज्ञान होता है तत्पश्चात् वह परमात्मा में समग्र संसार के चैतन्य को तथा जगत् के प्राणियों में सच्चिदानन्द का दर्शन करने लगता है। समस्त प्राणियों में एकत्व का दर्शन करने वाला व्यक्ति फिर किसी से घृणा नहीं करता है।

शब्दार्थ - यः - जो, भूतानि प्राणियों में आत्मनि - परमात्मा में अनुपश्यति देखता - है, न विजुगुप्सते - घृणा नहीं करता है।

व्याकरणिक टिप्पणी -आत्मनि - 'आत्मन्' शब्द से सप्तमी एकवचन। अनुपश्यति - अनु - दृश् (पश्य) धातु से लट् लकार प्र. पु. एक वचन ततः - तद् + तसिल्

६.

 

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्यैवभूत् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ॥

प्रसंग - इस मन्त्र में परमात्मा के दर्शन होने के बाद होने वाली सुखद स्थिति का वर्णन किया गया है

व्याख्या - जिस समय परमात्मा का दर्शन करने वाले प्राणी के लिए समस्त प्राणी आत्मवत् हो जाते हैं तो समस्त प्राणियों में एकत्व का दर्शन करने वाले उस विद्वान के लिए क्या शोक एवं क्या मौन होता है? अर्थात् वह शोक एवं मोह से रहित हो जाता है।

तात्पर्य यह है कि परमात्मा का दर्शन करने वाले व्यक्ति की एकत्ववाली भगवत् दृष्टि हो जाती है। वह जीव में ईश्वर का एवं ईश्वर में समस्त जीवों का स्वरूप देखता है इस स्थिति में तत्वदर्शी उस व्यक्ति के लिए शोक या करुणा तथा मोह आदि का कोई मूल्य नहीं रह जाता है।

शब्दार्थ - यस्मिन् - जिस स्थिति में तत्र उस या वहाँ सर्वाणि - समस्त को - कौन भूतानि - प्राणियों में।

व्याकरणिक टिप्पणी -
यस्मिन् - 'यद्' शब्द से सप्तमी एकवचन अभूत् - 'भू' धातु लुङ् लकार प्र. पु. एकवचन।

७.

अन्यदेवाहुः विद्ययान्यन्दाहुरविद्यया। इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद् विचचिक्षरे।

 

प्रसंग - विवेच्य मन्त्र में ज्ञान के अनुष्ठान एवं कर्म के अनुष्ठान के फलों को बताते हुए कहा गया है।

व्याख्या - ज्ञान के अनुष्ठान से दूसरा ही फल बतलाते हैं तथा कर्म के अनुष्ठान से दूसरा ही फल बतलाते हैं। इस प्रकार हमने धीर पुरुषों के वचन सुने हैं जिन्होंने हमें उस विषय को विधिवत् समझाया है।

तात्पर्य यह है कि विद्या या ज्ञान का अनुष्ठान मुक्तिका हेतु है तथा अविद्या या कर्म का अनुष्ठान बन्धन का हेतु है किन्तु न कार्य मात्र ज्ञान से होता है और न केवल कर्म से अपितु जो व्यक्ति ज्ञान एवं कर्म को भली-भाँति समझ लेता है वह ज्ञान के माध्यम से कर्म करता हुआ परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।

शब्दार्थ - अन्यत् - दूसरा एव - ही, विद्यया - विद्या या ज्ञान के अनुष्ठान से, आहुः - कहते हैं।

व्याकरणिक टिप्पणी -विद्यया - विद्या शब्द से तृतीया एकवचन। आहुः - वय् धातु से लट् लकार प्रथम पु. बहुवचन। न: - अस्मद् शब्द से तृतीया बहुवचन। धीराणां - धीर शब्द से षष्ठी बहुवचन। शुश्रुम - श्रु' सुनना धातु से लिट् लकार उ. पु. बहुवचन।

८.

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥

 प्रसंग - विवेच्य मन्त्र ज्ञान एवं कर्म को समझकर तदनुकूल आचरण करने का परिणाम बताया गया है

व्याख्या - जो व्यक्ति विद्या एवं अविद्या को साथ-साथ जान लेता है वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमृत को प्राप्त कर लेता है।

तात्पर्य यह है कि विद्या ज्ञान का अनुष्ठान है जबकि अविद्या कर्म का अनुष्ठान है। जो व्यक्ति ज्ञान एवं कर्म के अनुष्ठानों को यथार्थ रूप में समझ लेता है वह कर्म के माध्यम से अर्थात् धार्मिक कार्यों से मृत्यु को पार कर लेता है अर्थात् स्वर्ग की प्राप्ति कर लेता है तथा विद्या अथवा ज्ञान के माध्यम से वह स्वर्ग से भी ऊपर उठकर शोक को पारकर अमरत्व अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

शब्दार्थ - यः - जो, उभयं - दोनों को, विद्यां - ज्ञान को अविद्यां - कर्म को, वेद - जान लेता है अश्नुते - प्राप्त कर लेता है।

व्याकरणिक टिप्पणी - विद्यां - विद्यां' शब्द से द्वितीया एकवचन। अविद्यां - 'अविद्या' शब्द से द्वितीया एकवचन। विद्यया - 'विद्या' शब्द से तृतीया एकवचन ! मृत्युं - 'मृत्यु' शब्द से द्वितीया एकवचन। अमृतम् - अ + मृ + क्त' = अमृत शब्द से द्वितीया एकवचन।

९.

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रता।

प्रसंग - विवेच्य मन्त्र में विनाशशील यशादि तथा अविनाशी परमात्मा रत व्यक्तियों स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि -

व्याख्या - जो व्यक्ति असम्भूति की उपासना करते हैं वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं जबकि जो सम्भूति में रत हैं वे मानो उससे भी भयंकर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। असम्भूति का अर्थ है विनाशशील। देव, पितृ, स्त्री, पुत्र, पशु, धन एवं यश आदि विनाशशील हैं जो व्यक्ति इनमें रत हैं उन्हें परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है वे पुनः-पुनः जन्म लेते हैं और अज्ञानता रूपी अन्धकार में ही जीवन व्यतीत करते हैं जबकि जो व्यक्ति सम्भूति अर्थात् परमब्रह्म की उपासना का मिथ्याभिमान करते हैं वे लोग मानों और भी भयंकर अन्धकार में प्रवेश करते हैं।

शब्दार्थ - असम्भूतिम् - विनाशशील, देव - पितृ आदि, तमः - अन्धकार उ - भी, इव - मानो। व्याकरणिक टिप्पणी - असम्भूतिम् - असम्भूति शब्द से द्वितीया एकवचन का रूप। प्रविशन्ति - प्र + विश् + लट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन।

१०.

हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥

प्रसंग - परमब्रह्म परमेश्वर का उपासक उनसे अपने दर्शनार्थ आवरण को हटाने के लिए कहता है।

व्याख्या - हे परमेश्वर ! सत्य स्वरूप आपका मुख ज्योति के संघात् रूप सूर्य मण्डल रूपी पात्र से आच्छादित है। सत्य का अनुष्ठान करने वाले मुझको अपने दर्शन के निमित्त उस पात्र को हटा लीजिए।

तात्पर्य यह है कि परम तत्व का स्वरूप सूर्य के तेज से भी कई गुना शक्तिशाली है भक्त प्रार्थना करता है कि अज्ञान का यह जो आवरण है वह मुझे भ्रमित कर देता है और मैं आपको नहीं पहचान पाता हूँ। मैं सत्य धर्म का उपासक हूँ और केवलं परमतत्व ही सत्य है (ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या) अतः उस आच्छादन को हटा कर मुझे दर्शन देने की कृपा करें।

शब्दार्थ - पूषन् - परमात्मा हिरण्यमयेन - स्वर्णनिर्मित या ज्योति युक्त दृष्टये - दर्शनार्थ अपावृणु - हटा लीजिए।

व्याकरणिक टिप्पणी - सत्यस्य - सत्य शब्द से षष्ठी एकवचन। पात्रेण - 'पात्र' शब्द से तृतीया एकवचन। सत्यधर्माय - 'सत्यधर्म' शब्द से चतुर्थी एकवचन। दृष्टये - दृश् + क्त = दृष्ट शब्द से चतुर्थी एकवचन।

११.

अन्धंतमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ विधायां रता।

प्रसंग - विद्या एवं अविद्या की उपासना का परिणाम बताते हुए कहा गया है कि -

व्याख्या - जो अविद्या की उपासना करते हैं वे अज्ञान रूपी अन्धकार में प्रवेश करते हैं किन्तु जो विद्या में रत हैं वे उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं।

तात्पर्य यह है कि अविद्या विद्या का अभाव है जिसके समीप विद्या नहीं है वह कर्म का अनुष्ठान करता है और कर्म के अनुसार स्वर्ग या नरक को प्राप्त करता है किन्तु जो व्यक्ति विद्या अथवा ज्ञान का मिथ्या महिमा मण्डन करता है अथवा ज्ञानी होने का मिथ्याभिमान करता है। अतः विद्या का मिथ्या आडम्बर व्यक्ति को नरकगामी बना देता है।

शब्दार्थ - अविद्याम् - अविद्या की उपासते-उपासना करते हैं, ते - वे भूय इव - मानो अधिक।

व्याकरणिक टिप्पणी -विद्यायां - विद्या शब्द से सप्तमी एकवचन, प्रविशन्ति - प्र + विश् धातु लट्लकार प्रथम पुरुष बहुवचन ततः - तद् + तसिल्

१२.

अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमाना। दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढाः अन्धेन नीयमाना यथान्धाः।

 

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - विवेच्य श्लोक में यह बताया गया है कि अज्ञान वश व्यक्ति यदि किसी तरह धनोपार्जन कर लेते हैं तो स्वयं को पंडित मानते हैं।

व्याख्या - जो व्यक्ति अविद्या के कारण स्वयं को धनवान समझता है अल्पज्ञता के कारण स्वयं को पण्डित एवं विद्वान समझता है। ऐसे धनवान किन्तु मूर्ख व्यक्ति उसी प्रकार प्रदर्शित होते हैं जैसे एक अन्धा दूसरे अन्धे को सहारा दे रहा है।

विद्या का तात्पर्य ज्ञानानुष्ठान है जबकि अविद्या तात्पर्य कर्मानुष्ठान है। जो लोग अविद्या की उपासना करते हैं वे लोग अज्ञान में भ्रमण करते हैं। कर्म बन्धन का कारण है जबकि ज्ञाने मुक्ति का साधन है। जो लोग इस रहस्य को नहीं जानते वे लोग अज्ञानवश स्वयं ज्ञानी एवं पण्डित बताते हैं।

शब्दार्थ - अविद्या = अज्ञानी या = जो पण्डितं = ज्ञानी मन्यमाना = मानते हैं मूढाः = मूर्ख अन्धेन = अन्धा नीयमाना = ले जाता हुआ।

व्याकरणिक टिप्पणी - अविद्यां 'अविद्या' शब्द से द्वितीया एकवचन यस्मिन् - 'यद्' शब्द से सप्तमी एक वचन।

धनम् धन + सु अम्। प्रथमा एकवचन। तेन तद्' शब्द से तृतीया एकवचन का रूप।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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